प्राचीन समय में एक गाँव में एक साहूकार रहता था।

साहूकार बहुत संत सेवी और सत्संगी था। घर पर अक्सर साधु संतो का आवागमन लगा रहता था

रद्धा अनुसार साहूकार उनकी सेवा और ठहरने का प्रबंध भी अपने घर में करता था।

उसके पास कोई कमी तो थीं नहीं, प्रभु के दिये इस धन धान्य नौकर- चाकर से भरपूर जीवन में वह आसक्त बिल्कुल नहीं था,

उसका विचार था कि पूर्व जन्मों के अच्छे कर्मों का फल उसे प्राप्त हुआ है, इस लिए हमेशा परमार्थ और परोपकार के लिए धन खर्च करता था।

सेठ की एक लड़की थी। यह लड़की भी श्रेष्ठ विचार रखने वाली थी।

युवा होने पर इसका विवाह एक समर्थ परिवार में हुआ वह परिवार यद्यपी धन धान्य से भरपूर था पर सत्संग- प्रिय नहीं था।

एक दिन वह साहूकार की बेटी अपने ससुराल में सास के साथ बैठी थी कि बाहर से किसी एक फ़कीर ने आवाज लगाई कि "देवी!कुछ खाने को मिलेगा?

सास ने लड़की से कहा -"तू जाकर फ़कीर से कह आ कि यहाँ कुछ नहीं है।

लड़की ने सास की आज्ञा मान कर बाहर आकर फ़कीर से कहा -"महाराज!यहाँ कुछ नहीं है "फ़कीर ने बड़े प्रेम से पूछा," बेटी!फिर तुम लोग क्या खाते हो?

लड़की ने उत्तर दिया,"महाराज!हम बासी भोजन खा रहे हैँ।

"फ़कीर मुस्कराते हुए पूछने लगा,"बेटी!जब बासा ख़त्म हो जायेगा तो फिर क्या खाओगे?"

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